Here is an editorial I wrote for a leading Hindi newspaper. Enjoy, and the link to original image is at the end.
भारतीय राज्य व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी है उसका संतुलन। हमने 1950 से ही, संविधान को अपना सर्वस्व माना, और राज्य के हर अंग को उसके अधीन करते हुए, ऐसी व्यवस्था बनाई जिसने इतने विशाल और विविध देश को 70 सालों से संभाल रखा है।
हमारी राज्य व्यवस्था तीन स्तरों पर कार्य करती है - केंद्र सरकार और उसके संस्थान व निकाय, राज्य सरकारें और उनके संस्थान/निकाय, एवं स्थानीय प्रशासन निकाय (शहरी और ग्रामीण) जो जड़ों तक फैले हुए हैं। चूंकि ये एक वृहद् व्यवस्था है जो विभिन्न सरकारें मिलकर चलाती हैं, अतः संविधान में अनेकों संतुलन बनाये रखने वाले सूत्र दिए गए हैं, मसलन केंद्र-राज्य-स्थानीय निकाय संबंधों को परिभाषित करना और एक निरपेक्ष भाव से उनको चलाते रहने हेतु अनेकों स्वायत्त निकाय भी बनाना।
किन्तु सत्ता का एक श्याम पक्ष होता है - सत्ता भ्रष्ट बनाने की ताकत रखती है, और पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से भ्रष्ट बनाने की ताकत रखती है। इसीलिए, हमारे लोकतंत्र को तीन स्तंभों पर खड़ा किया गया है, एक पर नहीं। पहला - विधायिका (लेजिस्लेटिव) अर्थात संसद व विधानसभाएं, जो कानूनों को बनाती हैं और इन्हीं में से बनती है सरकारें (राजनीतिक कार्यकारी), दूसरा - कार्यपालिका अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था जो चुन कर नहीं वरन परीक्षा से चयन होकर आये लोगों से बनती है, और तीसरा - न्यायपालिका जिसका मुख्य कार्य है संविधान की संरक्षा करना, कानूनी विवाद निपटाना और कानून की व्याख्या करना (बनाना नहीं)।
तो भारत के संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच "शक्तियों के विभाजन" का जो सिद्धांत है, वो करीब से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो न्यायपालिका को "न्यायिक समीक्षा की शक्ति" के रूप में कार्यकारी और संसद पर एक ऊपरी हाथ दिया गया है। वे संवैधानिक प्रावधान जो कानूनों की न्यायिक समीक्षा की गारंटी प्रदान करते हैं वे अनुच्छेद 13, 32 131-136, 143, 145, 226, 246, 251, 254 और 372 में शामिल हैं। न्यायिक समीक्षा की शक्ति उच्चतम न्यायालय को संसद द्वारा बनाये किसी भी कानून को संविधान की कसौटी पर परखने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है - इस लिहाज से कार्यकारी और न्यायालयों के बीच घर्षण होना आम बात है, और उसमें कुछ बुरा भी नहीं।
जब तक इन तीन स्तंभों में संतुलन बना रहेगा, तब तक देश सुचारू रूप से चलता रहेगा। हालाँकि इतना सरल कभी कुछ नहीं रहा। 1951 के तुरंत बाद संविधान में जैसे ही नई सरकार ने काम शुरू किया, भूमि से जुड़े कानून और अधिकारों में संशोधन की आवश्यकता महसूस हो गयी चूंकि सरकारी प्रोजेक्ट अटक रहे थे। तबसे अब तक, 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं, और अनेकों बार न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णयों को पलटने हेतु ऐसा किया गया - सबसे उल्लेखनीय है श्री राजीव गाँधी द्वारा शाह बानो मामले में कानून बदल देना जिससे सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही प्रभावहीन हो गया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में कहा गया है कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति का संचालन कार्यकारी द्वारा किया जाएगा। 1990 के दशक में भारतीय न्यायपालिका में एक नई घटना हुई, जो वैश्विक न्यायपालिका में अनसुनी है, जिसके अनुसार शीर्ष अदालत ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक कॉलेजियम व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें न्यायाधीश स्वयं न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। यह राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों की दृष्टि से एक नया प्रयोग था! न्यायिक नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली भारत में अद्वितीय है और दुनिया में कहीं भी इस प्रकार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं है। उपरोक्त के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने संसद की विधि निर्माण की औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से (121 वां संशोधन विधेयक, जो 99 वें संशोधन अधिनियम के रूप में पारित हुआ) राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियमित किया। सरकार की मंशा थी कि अन्य सभी क्षेत्रों की ही तरह न्यायपालिका पर भी पारदर्शिता के उच्चतम मापदंड लागू हों, और जनता का पूर्ण विश्वास हमेशा बना रहे। यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है कि भारतीय न्यायपालिका विश्व की सबसे बडी न्याय व्यवस्थाओं में से एक है जहाँ देश के विभिन्न न्यायालयों में लाखों की संख्या में न्यायिक मामले लंबित हैं और सैकडों की संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त पडे हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि जितना व्यय न्यायिक अधोसंरचना निर्माण पर होना चाहिए था, उतना वर्ष-दर-वर्ष हुआ ही नहीं और बढ़ती जनसँख्या के दबाव के तले पूरी न्याय व्यवस्था चरमरा गयी।
उच्चतम न्यायालय ने संसद के उक्त रा.न्या.नि.आ. अधिनियम को अवैध और शून्य घोषित किया और इसे खारिज कर दिया। अब केंद्र सरकार पर ये ज़िम्मेदारी डाल दी गई कि वो एक प्रक्रिया पत्र (मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर), जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के कार्य की जगह लेगा, तैयार करे। 28 अक्टूबर 2016 को उच्चतम न्यायालय ने गुस्सा करते हुए सरकार को याद दिलाया कि प्रक्रिया पत्र बनाने में बनाने में देरी स्वीकार्य नहीं है, और सबसे वरिष्ठ नौकरशाहों को कोर्ट में बुला लिया जायेगा यदि जल्दी से नतीजे नहीं आये तो। इसके तुरंत बाद सरकार ने कुछ नए न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी दे दी, किन्तु अभी भी काफी पद रिक्त पड़े हैं।
अक्टूबर अंत में रिक्त पदों की स्थिति : उच्चतम न्यायालय : 10 % रिक्त (3 #), सभी उच्च न्यायालय : 43 % रिक्त (464 #)
इस स्थिति में यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका तुरंत और सौहार्दपूर्ण ढंग से इस गतिरोध को हल नहीं करते तो सबसे अधिक नुकसान न्याय चाहने वालों का ही होगा। कानूनी विशेषज्ञों और न्यायिक टीकाकारों की राय है कि इस गतिरोध को शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिए। इसके लिए दोनों पक्षों को इसे अधिकार या प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाते हुए एक कदम पीछे आने को तैयार होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय को कॉलेजियम व्यवस्था की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की संभावनाओं पर विचार के लिए सहमति प्रदान करना चाहिए यदि इससे यह सुनिश्चित होता है कि यह व्यवस्था अधिक खुली और पारदर्शी बनती है। साथ ही, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका से बाहर के व्यक्तियों के प्रवेश को लेकर न्यायपालिका को आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
समस्या अभी भी अनसुलझी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि देश में न्याय की प्रतिष्ठा ठोस बनाये रखने हेतु इसे पटरी से उतरा हुआ नहीं माना जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि इस समस्या और गतिरोध का सौहार्दपूर्ण समाधान ढूँढा जाये। अंततः समय पर प्रदान न किया गया न्याय, न्याय की वंचितता के ही समान है!
भारतीय राज्य व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी है उसका संतुलन। हमने 1950 से ही, संविधान को अपना सर्वस्व माना, और राज्य के हर अंग को उसके अधीन करते हुए, ऐसी व्यवस्था बनाई जिसने इतने विशाल और विविध देश को 70 सालों से संभाल रखा है।
हमारी राज्य व्यवस्था तीन स्तरों पर कार्य करती है - केंद्र सरकार और उसके संस्थान व निकाय, राज्य सरकारें और उनके संस्थान/निकाय, एवं स्थानीय प्रशासन निकाय (शहरी और ग्रामीण) जो जड़ों तक फैले हुए हैं। चूंकि ये एक वृहद् व्यवस्था है जो विभिन्न सरकारें मिलकर चलाती हैं, अतः संविधान में अनेकों संतुलन बनाये रखने वाले सूत्र दिए गए हैं, मसलन केंद्र-राज्य-स्थानीय निकाय संबंधों को परिभाषित करना और एक निरपेक्ष भाव से उनको चलाते रहने हेतु अनेकों स्वायत्त निकाय भी बनाना।
किन्तु सत्ता का एक श्याम पक्ष होता है - सत्ता भ्रष्ट बनाने की ताकत रखती है, और पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से भ्रष्ट बनाने की ताकत रखती है। इसीलिए, हमारे लोकतंत्र को तीन स्तंभों पर खड़ा किया गया है, एक पर नहीं। पहला - विधायिका (लेजिस्लेटिव) अर्थात संसद व विधानसभाएं, जो कानूनों को बनाती हैं और इन्हीं में से बनती है सरकारें (राजनीतिक कार्यकारी), दूसरा - कार्यपालिका अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था जो चुन कर नहीं वरन परीक्षा से चयन होकर आये लोगों से बनती है, और तीसरा - न्यायपालिका जिसका मुख्य कार्य है संविधान की संरक्षा करना, कानूनी विवाद निपटाना और कानून की व्याख्या करना (बनाना नहीं)।
तो भारत के संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच "शक्तियों के विभाजन" का जो सिद्धांत है, वो करीब से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो न्यायपालिका को "न्यायिक समीक्षा की शक्ति" के रूप में कार्यकारी और संसद पर एक ऊपरी हाथ दिया गया है। वे संवैधानिक प्रावधान जो कानूनों की न्यायिक समीक्षा की गारंटी प्रदान करते हैं वे अनुच्छेद 13, 32 131-136, 143, 145, 226, 246, 251, 254 और 372 में शामिल हैं। न्यायिक समीक्षा की शक्ति उच्चतम न्यायालय को संसद द्वारा बनाये किसी भी कानून को संविधान की कसौटी पर परखने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है - इस लिहाज से कार्यकारी और न्यायालयों के बीच घर्षण होना आम बात है, और उसमें कुछ बुरा भी नहीं।
जब तक इन तीन स्तंभों में संतुलन बना रहेगा, तब तक देश सुचारू रूप से चलता रहेगा। हालाँकि इतना सरल कभी कुछ नहीं रहा। 1951 के तुरंत बाद संविधान में जैसे ही नई सरकार ने काम शुरू किया, भूमि से जुड़े कानून और अधिकारों में संशोधन की आवश्यकता महसूस हो गयी चूंकि सरकारी प्रोजेक्ट अटक रहे थे। तबसे अब तक, 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं, और अनेकों बार न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णयों को पलटने हेतु ऐसा किया गया - सबसे उल्लेखनीय है श्री राजीव गाँधी द्वारा शाह बानो मामले में कानून बदल देना जिससे सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही प्रभावहीन हो गया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में कहा गया है कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति का संचालन कार्यकारी द्वारा किया जाएगा। 1990 के दशक में भारतीय न्यायपालिका में एक नई घटना हुई, जो वैश्विक न्यायपालिका में अनसुनी है, जिसके अनुसार शीर्ष अदालत ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक कॉलेजियम व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें न्यायाधीश स्वयं न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। यह राज्य-व्यवस्था के तीनों अंगों की दृष्टि से एक नया प्रयोग था! न्यायिक नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली भारत में अद्वितीय है और दुनिया में कहीं भी इस प्रकार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं है। उपरोक्त के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने संसद की विधि निर्माण की औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से (121 वां संशोधन विधेयक, जो 99 वें संशोधन अधिनियम के रूप में पारित हुआ) राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियमित किया। सरकार की मंशा थी कि अन्य सभी क्षेत्रों की ही तरह न्यायपालिका पर भी पारदर्शिता के उच्चतम मापदंड लागू हों, और जनता का पूर्ण विश्वास हमेशा बना रहे। यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है कि भारतीय न्यायपालिका विश्व की सबसे बडी न्याय व्यवस्थाओं में से एक है जहाँ देश के विभिन्न न्यायालयों में लाखों की संख्या में न्यायिक मामले लंबित हैं और सैकडों की संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त पडे हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि जितना व्यय न्यायिक अधोसंरचना निर्माण पर होना चाहिए था, उतना वर्ष-दर-वर्ष हुआ ही नहीं और बढ़ती जनसँख्या के दबाव के तले पूरी न्याय व्यवस्था चरमरा गयी।
उच्चतम न्यायालय ने संसद के उक्त रा.न्या.नि.आ. अधिनियम को अवैध और शून्य घोषित किया और इसे खारिज कर दिया। अब केंद्र सरकार पर ये ज़िम्मेदारी डाल दी गई कि वो एक प्रक्रिया पत्र (मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर), जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के कार्य की जगह लेगा, तैयार करे। 28 अक्टूबर 2016 को उच्चतम न्यायालय ने गुस्सा करते हुए सरकार को याद दिलाया कि प्रक्रिया पत्र बनाने में बनाने में देरी स्वीकार्य नहीं है, और सबसे वरिष्ठ नौकरशाहों को कोर्ट में बुला लिया जायेगा यदि जल्दी से नतीजे नहीं आये तो। इसके तुरंत बाद सरकार ने कुछ नए न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी दे दी, किन्तु अभी भी काफी पद रिक्त पड़े हैं।
अक्टूबर अंत में रिक्त पदों की स्थिति : उच्चतम न्यायालय : 10 % रिक्त (3 #), सभी उच्च न्यायालय : 43 % रिक्त (464 #)
इस स्थिति में यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका तुरंत और सौहार्दपूर्ण ढंग से इस गतिरोध को हल नहीं करते तो सबसे अधिक नुकसान न्याय चाहने वालों का ही होगा। कानूनी विशेषज्ञों और न्यायिक टीकाकारों की राय है कि इस गतिरोध को शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिए। इसके लिए दोनों पक्षों को इसे अधिकार या प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाते हुए एक कदम पीछे आने को तैयार होना चाहिए। उच्चतम न्यायालय को कॉलेजियम व्यवस्था की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की संभावनाओं पर विचार के लिए सहमति प्रदान करना चाहिए यदि इससे यह सुनिश्चित होता है कि यह व्यवस्था अधिक खुली और पारदर्शी बनती है। साथ ही, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका से बाहर के व्यक्तियों के प्रवेश को लेकर न्यायपालिका को आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
समस्या अभी भी अनसुलझी है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि देश में न्याय की प्रतिष्ठा ठोस बनाये रखने हेतु इसे पटरी से उतरा हुआ नहीं माना जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि इस समस्या और गतिरोध का सौहार्दपूर्ण समाधान ढूँढा जाये। अंततः समय पर प्रदान न किया गया न्याय, न्याय की वंचितता के ही समान है!
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