भारत के 135 करोड़ नागरिकों को आज गणतंत्र दिवस के
अद्भुत मौके पर हार्दिक बधाइयां!
जब अंग्रेज़ भारत छोड़ कर गए, उन्होंने वे सभी प्रयास
प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किये जिससे उपमहाद्वीप में सदा के लिए दरारें पड़ी रहें -
भले ही हड़बड़ी में माउंटबैटन का भारत छोड़ बर्मा चले जाना (नहीं जाते तो विभाजन का
नरसंहार रोका जा सकता था) या एक गैर-विशेषज्ञ द्वारा रेडक्लिफ लाइन बना कर भारत से
दो टुकड़े अलग करना (पाकिस्तान और भविष्य का बांग्लादेश) या साम्प्रदायिकता के ऐसे
जहरीले बीज बोना जो वक़्त के साथ फलते-फूलते। ये उनकी दिली तमन्ना थी कि भारत टुकड़े
टुकड़े हो जायेगा, क्योंकि इसे एक करने वाला कोई है ही नहीं। विंस्टन चर्चिल के भारत
पर जहरीले बोल किसी से छुपे नहीं हैं!
उनके मंसूबों पर भारत के नेताओं ने पानी फेर दिया -
सरदार पटेल ने देश को एक सूत्र में बाँध दिया (कश्मीर से कन्याकुमारी तक), पंडित
नेहरू ने एक लोकतांत्रिक चुनाव और गणतंत्र की नींव रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और
अन्य ने भी भरपूर योगदान दिया। अंततः 1960 आते-आते भारत में एक व्यवस्थित संवैधानिक
और लोकतांत्रिक व्यवस्था ने पैर जमा ही लिए। तमाम झटकों और विरोधाभासों के बाद भी,
हम बने रहे, और आज इक्कीसवी सदी की ओर आशा से देख रहे हैं।
लेकिन इस साथ दशकों की लंबी यात्रा में हमने एक बहुत गलत रुझान देखा है, जो आज ठीक न किया गया, तो लोगों का विश्वास खो देने का डर सदा बना रहेगा। और ये है - जिस गणतंत्र का भरोसा हमें दिलाया गया था, और जिससे एक सच्चा जनतंत्र अस्तित्व में आता, जहाँ आमजन पूरी आज़ादी से सशक्त हो पाता, कब सत्ता के गलियारों में राजतंत्र में तब्दील होता चला गया, पता ही नहीं चला। नागरिक हाशिये पर चले गए, व्यवस्था प्रधान हो गयी; जनता की ज़रूरतें सरकार की नीतियों में दब कर रह गयीं; राजतंत्र ने अपनी दबंगई से गणतंत्र के कमज़ोर हिस्सों पर ऐसा वार किया कि नागरिक कानून के लिए बन गए, कानून नागरिकों के लिए नहीं!
एक आम नागरिक की दृष्टि से आज के तंत्र पर नज़र डालें तो यकीन हो जाता है कि संविधान निर्माताओं ने ऐसे भारत की कल्पना तो नहीं की होगी - स्वर्णिम तो दूर, हम अपने अधिकांश नागरिकों को एक नारकीय जीवन जीने हेतु विवश देखते हैं। ऐसे तीन साफ़ चिन्ह आप स्वयं परख लें -
पहला चिन्ह - हमारी आधी आबादी की अधिकार-विहीन स्थिति। जिस प्रकार पिछले दस वर्षों में महिलाओं का कार्यबल में प्रतिशत गिरता जा रहा है, और उनके विरुद्ध होने वाले अपराधों की प्रवृत्ति और संख्याओं में इजाफा हो रहा है, सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे राजतंत्र ने पूरी तरह अपराधियों और सामाजिक निष्क्रियता हेतु मैदान खुला छोड़ दिया है?
दूसरा चिन्ह - हमारी आबादी की क्षमताएं और शिक्षा द्वारा उन्हें जीवन-यापन के लिए तैयार करने की हमारी प्रतिबद्धता। सर्वेक्षण लगातार बता रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में, जहाँ आबादी का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को भेजता है, वहां कैसी निराशाजनक स्थिति है और किस प्रकार से बच्चों के भविष्य के साथ अनुपस्थित शिक्षक और अधिकारी वर्ग के हज़ारों जिम्मेदार खिलवाड़ कर रहे हैं।
तीसरा चिन्ह - हमारी सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की स्थिति - जिसमें जीवन की सुरक्षा से लेकर पौष्टिक भोजन, बीमारियों से लड़ने की ताक़त और स्वच्छ वायु भी शामिल है - बहुत कुछ कह जाती है। गरीब के लिए गरीबी उतना बड़ा अभिशाप नहीं जितना गंभीर बीमारी के चंगुल में फँसना।
हमारे संविधान की उद्देशिका कहती है कि भारत एक "संप्रभु, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, गणराज्य" बनेगा। एक-एक कर देखें कि इन पांच तत्वों का एक नागरिक से क्या लेना-देना है। जब तक हम एक नागरिक पर ये परीक्षण नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं पता चलेगा।
सत्ता और राजतन्त्र संप्रभु हैं, इसमें कोई शक़ नहीं, किन्तु नागरिक अपने हक़ों को लेकर संप्रभु नहीं। जिस किसी का पुलिस या कचहरी या प्रशासन से अपने माकूल हक़ पाने हेतु कभी पाला पड़ा है, वो जानता है कि दिखने वाले दांतों और खाने वाले दांतों में कितना बड़ा अंतर है! बरसों गुज़र जाते हैं, सभी मानदंड बदल जाते हैं, जीवन गुज़र जाता है, और तब कहीं न्याय की आस बंधती दिखती है।
समाजवादी हम कितने बने, ये हमारी प्रति व्यक्ति आय (2000 डॉलरों से कम, जो हमें निम्न माध्यम आय मुल्क बनाती है), से साफ़ ज़ाहिर है। हम व्यापक गरीबी हटाने हेतु लगातार नए कार्यक्रम लाते रहे, और गरीबी बढ़ती रही। एक आम जन ने यही सोचा होगा कि नेताओं से उम्मीदें बेकार हैं, तो चुनावों में जो फायदा (धन, वस्तुओं) का लिया जा सके वो ले लिया जाये। व्यापक चुनावी भ्रष्टाचार दशकों की निराशा से पनपा।
पंथ-निरपेक्षता से जुड़े विवादों का भरपूर फायदा सभी दलों ने अपने-अपने ढंग से उठाया, किन्तु मूल नैतिकता जो सभी धर्मों का आधार है, वो खो गयी। हमने जीवन के हर वर्ग में मुंडक उपनिषद् के "सत्यमेव जयते" को त्याग दिया, हालाँकि हर आधिकारिक दस्तावेज पर वो शान से विराजमान रहा।
लोकतान्त्रिक हम बने रहे, और जनता
ने उन राजनेताओं को भी समय-समय पर कड़ा सबक सिखाया जिन्होंने खुलेआम वादा-खिलाफ की।
किन्तु उससे कुछ मूलभूत बदला नहीं - नए रूपों में कभी उन्हीं परिवारों के, कभी
रिश्तेदारों के, तो कभी चमचों के हाथों जनता की गाढ़ी कमाई का धन लुटता रहा, नेता
अमीर और धनाढ्य बनते रहे और आमजन पिसता रहा। लोकतंत्र दुर्भाग्यवश एक मशीन बन गया,
हर पांच वर्षों में नए चेहरे आगे लाने का, लेकिन वो जनता जो सुशिक्षित न बन पायी,
उसके लिए 26 जनवरी और 15 अगस्त के असली मायने धीरे-धीरे धुंधले होते चले
गए।
और बचा गणराज्य! हमारे शासक
परिवारवादी वंशों और राजवंशों के नहीं होंगे, और वे चुने हुए जनता के असली नेता
होंगे, ये थी गणतंत्र की असली भावना और उद्देश्य। आप खुद तय करें, उपरोक्त तःथ्यों
के साथ, कि हमने सात दशकों में वाकई कितना सफर तय किया।
निराशा के बादल से ही आशा की किरण फूटती है। स्याह
रातों के बाद ही एक सुनहरा सवेरा होता है। एक नागरिक के नाते, आप और हम बहुत कुछ कर
सकते हैं जो हम कर नहीं रहे। क्या संभावनाएं हैं?
पहला - अपने नेताओं को हम अपना राजा और अपना मालिक समझना बंद करें। "सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण भ्रष्ट करती है" के मन्त्र पर ही हमें अपने नेताओं को समझाना होगा कि हमारी पसीने की कमाई (हमारे चुकाए कर) के दम पर वे हमारे हितैषी नहीं बन जायेंगे - उन्हें नित नए नवाचारी और कुशल उद्यम और तरीकों से इन करों से काम लेकर दिखाना होगा। इनकी परीक्षा होनी आवश्यक है, और केवल एक जागरूक नागरिकवर्ग ही ऐसा कर पायेगा।
दूसरा - हमारे अपने स्वार्थों के लिए हर बार छोटी गलियां निकालने, और छोटे-छोटे भ्रष्टाचार के ज़रिये हिट साधने की अपनी आदतें हमें त्यागनी होंगी। हम ही उन बड़े भ्रष्टाचारों की नींव रख देते हैं, जिन घोटालों के फूटने पर हमें अचरज होता है।
तीसरा - हमारे मौलिक अधिकार अपने साथ कुछ गंभीर मौलिक कर्त्तव्य भी लाते हैं, ये हमें समझना होगा। एक हाथ से सब्सिडी लेते वक़्त हम ध्यान रखें कि व्यवस्था को ज़िम्मेदार बनाना हमारी की ज़िम्मेदारी है।
आइये, एक सच्चा गणतंत्र बनाएं, जहाँ जन ही तंत्र हों, राज उनके अधीन हो और तंत्र केवल जन हेतु हो। जय हिन्द!
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